Translate

ख़बरें विस्तार से

अन्य ख़बरें आगे पढ़ें
ग्रामीण मीडिया में दे विज्ञापन और ग्रामीण क्षेत्रों सहित जिले में करें अपने व्यापार का प्रचार बैतूल जिले के सबसे बड़े हिंदी न्यूज़ पोर्टल- ग्रामीण मीडिया सेंटर में आप सभी का स्वागत है।

सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

प्राचीन सिक्कों की कहानी प्रदर्शनी, भोपाल के राज्य संग्रहालय में 10 से 17 अक्टूबर तक

ग्रामीण मीडिया सेण्टर

संचालनालय पुरातत्व अभिलेखागार एवं संग्रहालय द्वारा प्राचीन भारतीय सिक्कों पर आधारित छायाचित्र प्रदर्शनी राज्य संग्रहालय के प्रदर्शनी सभागृह में 10 से 17 अक्टूबर तक लगाई जाएगी। आमजन प्रदर्शनी को रोजाना सुबह 10.30 बजे से शाम 5.30 बजे तक नि:शुल्क देख सकेंगे।
पुरातत्व आयुक्त श्री अनुपम राजन ने जानकारी देते हुए बताया कि भारत में सिक्कों के उदभव की कहानी मानव सभ्यता के विकास से जुड़ी है। मनुष्य के क्रमिक बौद्धिक विकास से ही सिक्कों का जन्म हुआ है। संस्कृतियों के उदभव एवं विकास का सिक्कों की कहानी से प्रत्यक्ष संबंध रहा है। श्री राजन के अनुसार पुरातत्वविद भारत में सिक्कों का प्रचलन ई.पू. 800 के लगभग से मानते हैं।
सिक्कों की कहानी का दिलचस्प इतिहास
सिक्कों की कहानी की प्रथम अवस्था पाषाणकालीन है, जिसमें उनकी आवश्यकताएँ सीमित थी। प्रागैतिहासिक काल के बाद द्वितीय अवस्था आद्य-ऐतिहासिक काल में धीरे-धीरे लोगों के जीवन में स्थिरता आने लगी। इस काल में लोगों को कृषि का प्रारंभिक ज्ञान हुआ तथा अन्न पैदा करने के साथ ही पशुपालन करने लगे। वस्तुओं की अदला-बदली में कठिनाइयों को देखते हुए ऐसा सोचा गया कि कोई ऐसी वस्तु निर्धारित की जाये जिसको मूल्य की इकाई (माध्यम) मान लिया जाए। गाय को इस इकाई के रूप में मान्यता प्रदान हुई। आवश्यकतानुसार भेड़, बकरी, अनाज, चमड़ा, पत्थर के औजार को भी विनिमय में माध्यम बनाते थे। आज भी देहातों में किसान अनाज देकर अन्य आवश्यक वस्तुएँ खरीदते हैं। यह सिक्कों के उदभव की दिशा में विकास का द्वितीय चरण था। यह वार्टर पद्धति बहुत समय तक प्रचलित रही। ई.पू. पाँचवी शती तक 'गाय मूल्य' का माध्यम मानी जाती रही है। किन्तु विनिमय में धातु-पिंडों का प्रयोग आरंभ हो जाने से इसमें गाय का महत्व धीरे-धीरे कम हुआ। इसके उदभव क्रम की तृतीय अवस्था में वस्तुओं के क्रय-विक्रय हेतु धातुओं के टुकड़ों को माध्यम माना गया। चतुर्थ अवस्था में धातुओं के सिक्के बनाये जाने लगे। उन पर कोई चिन्ह अंकित नहीं होते थे। वास्तविक सिक्कों पर निर्धारित चिन्हों का होना जरूरी था, इससे तौल निश्चित रहती थी। धातु के टुकड़ों पर सम्मानित व्यक्ति की मुहर लगाई जाती थी ताकि लोगों को विश्वास रहे कि उस सिक्के की धातु शुद्ध तथा वजन सही है।
प्राचीन ग्रन्थकारों ने सिक्के के बारे में विस्तृत रूप से लिखा है कि जिन क्षेत्रों में जो धातु अधिक मिलती थी, वहाँ उस धातु को सिक्के के रूप में प्रयोग में लाते थे। मध्यप्रदेश के बालाघाट में तांबा सर्वाधिक मिलता था। आन्ध्रप्रदेश में सीसा तथा मैसूर में सोना अधिक होता था। इस प्रकार के सिक्के एरण, विदिशा, उज्जैन, मंदसौर, महेश्वर, कोशांबी आदि से मिले हैं।
'सिक्को की कहानी' प्रदर्शनी में भारत में ई.पू. छठी शती के बाद सिक्कों के विकास क्रम का व्यवस्थित रूप मिलता है जो ब्रिटिश काल तक अनवरत चलता रहा। मुस्लिम काल में दिल्ली सुल्तान, प्रान्तीय सुल्तानों, मुगलों और मराठों के सिक्के स्वर्ण, रजत एवं ताम्र धातुओं के मिलते हैं जो तत्कालीन अर्थ-व्यवस्था के आधार-स्तम्भ को समाहित कर प्रदर्शित किया गया है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

खबरे एक नज़र में (पढ़ने के लिए महीने और तारीख पर क्लिक करें )

Add 1

सूचना

आपकी राय या सुझाव देने के लिए नीचे लाल बॉक्स पर क्लिक करें मिलावट रहित गाय के घी और ताजे दूध के लिए संपर्क करें 9926407240

हमारे बारे में आपकी राय यहाँ क्लिक करके दें

हमारे बारे में आपकी राय यहाँ क्लिक करके दें
राय जरूर दें